उत्तराखंड के इस गांव में रक्षाबंधन के दिन लोग एक-दूसरे को मारते हैं पत्थर, जानें क्यों ?
रक्षाबंधन को भाई बहन के प्यार का त्यौहार कहा जाता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि रक्षाबंधन के दिन उत्तराखंड के एक स्थान पर लोग एक-दूसरे को पत्थरों से मारते हैं और एक दूसरे का खून बहाया जाता है। इस दिन यहां की बहनें अपने भाईयों को युद्ध में भेजने के लिए तैयार करती है।
मां के जयकारे लगाते हुए इस खूनी खेल को खेलने में वहां के लोगों को काफी खुशी होती है। स्थानीय भाषा में इसे बग्वाल कहते हैं। लेकिन आखिर क्यों, ऐसा क्या कारण है कि त्योहार पर एक दूसरे को पत्थरों से मारा जाए और इसके लिए कई दिनों से तैयारी भी की जाए।
रक्षाबंधन के दिन लोग एक-दूसरे को मारते हैं पत्थर
कुमाऊं की संस्कृति का अभिन्न अंग पत्थर मार मेला जिसे बग्वाल के नाम से पुकारा जाता है। ये अल्मोड़ा जिले के देवीधुरा स्थित मां बाराही धाम में हर साल रक्षाबंधन त्योहार के दिन मनाया जाता है। देवीधुरा जो देवी मां का धाम है और देवीधुरा का अर्थ है देवी का पहाड़ ।
ये क्षेत्र हिमालय के अंचल में बसा है। यहाँ देवी की बाराही रूप में पूजी की जाती है। मंदिर में मां बाराही की मूर्ति में इतना तेज और शक्ति है कि कोई भी इस मूर्ति को खुली आंखो से नहीं देख सकता। कहा जाता है कि जो ऐसा करने का प्रयास करता है तो उसकी आंखे चली जाती हैं। इसी मंदिर में हर साल खेला जाता है पाषाण यद्ध जिसे देखने के लिए दूर दूर से लोग आते हैं।
चार खामों में खेली जाती है बग्वाल
इस पत्थर मार मेले में यहां के स्थानीय लोग चार दलों में विभाजित होते हैं इन्हें खाम भी कहा जाता है। ये खाम है चम्याल खाम, गडहवाल खाम, लमगडिया खाम, बालिक खाम। मेले की शुरूआत चारों खामों के दो दलों में विभाजित होने से होती है।
बग्वाल वाराही मंदिर खोलीखांड के प्रांगण में खेली जाती है। इसे चारों मंडलों के युवा और बुजुर्ग लोग बजाते हैं। लमगड़िया और वालिग खाम के रणबांकुरे एक तरफ खड़े होते हैं। जबकि गहड़वाल और चम्याल खाम के रणबांकुरे दूसरी तरफ खड़े होते हैं।
ये है बग्वाल खेलने का कारण
कहा जाता है कि प्राचीन समय में माता वाराही के गणों को तृप्त करने के लिए तांत्रिकों द्वारा बारी बारी से नर बलि देने – का प्रावधान बनाया गया था। लेकिन एक बार जब चम्याल खाम की एक बुजुर्ग महिला के एकलौते पौत्र की बलि देने की बारी आई तो उस वृद्धा ने माँ वाराही की आराधना करनी शुरू की।
पूजा से खुश होकर माँ वाराही ने कहा कि अगर मेरे गणों के लिए एक आदमी के बराबर रक्त की व्यवस्था हो जाए। तो वो नरबलि नहीं मांगेगे। जिसके बाद चारों खामों ने मिलकर एक मनुष्य के बराबर खून माता को अर्पित करने का वचन दिया और तब से ये परंपरा बन गई।
जिसमें चारों खाम में एक दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं और जब तक एक आदमी के जितना खून नहीं निकल जाता तब तक इस युद्ध को खेलते रहते हैं। बग्वाल खेलने वाले अपने साथ बांस के बने फर्रे पत्थरों को रोकने के लिए रखते हैं। मान्यता है की बग्वाल खेलने वाला व्यक्ति यदि पूर्णरूप से शुद्ध व पवित्रता रखता है तो उसे पत्थरों की चोट नहीं लगती है।
आइए जानते हैं कैसे इसे मैदान में खेला जाता है ?
रक्षाबंधन के दिन सिर पर कपड़ा बांधे हाथ में फूलों से सजा फर्रा छन्तोली और लट्ठ लिए, बग्वाली जिन्हें द्यौके भी कहा जाता है वह सब मैदान में माता रानी के जयकारों के साथ उतरते हैं और देवीधुरा मंदिर के प्रधान पुजारी, शंखनाद के साथ इसकी शुरुआत करते हैं।
एक ऐसे युद्ध की जो पत्थरों को अस्त्र बना कर खेला जाता है। धीरे-धीरे बग्वाली एक दूसरे पर प्रहार कर मैदान के बीचों बीच बने ओड़ तक पहुंचने का प्रयास करते हैं। बग्वाल में आज भी निशाना लगा कर एक दूसरे पर पत्थर से मारना सख्त मना है।
माता के आदेश के बाद पुजारी रोकते हैं बग्वाल को
कहा जाता है कि बग्वाल खेलने के दौरान मंदिर में पूजा में लीन पुजारी पर माता रानी का आशीर्वाद होता है। जब बग्वाल खेली जाती है तो जैसे ही पुजारी को आभास हो जाता है कि एक नर जितना रक्त बह गया है तो वह शंख बजाकर ताँबे के छत्र और चैंबर के साथ मैदान में आकर खेली जा रही बग्वाल को रोक देते हैं। पूरा मैदान माता रानी के जयकारों से गूंजने लगता है।