क्या दलित पॉलिटिक्स को नया नेतृत्व मिला है ? 0 पर रही BSP तो चंद्रशेखर ने अपने दम पर जीती नगीना सीट
नई दिल्ली: लोकसभा चुनाव के नतीजे आ गए हैं और यूपी में दलित पॉलिटिक्स के नए नेता को लेकर चर्चाएं तेज हो गई हैं. क्योंकि राज्य में करीब 21 फीसदी दलित वोटर्स की संख्या है और इस समाज के वोटर्स पर प्रत्येक पार्टी की नजर रहती है. खासतौर पर बसपा को यूपी में दलित पॉलिटिक्स के लिए ही जाना जाता है, लेकिन पिछले 12 साल से पार्टी राज्य की सत्ता से बाहर है और उसका बड़ा वोट बैंक भी धीरे-धीरे हाथ से छिटकते देखा जा रहा है. इस बीच, यूपी की राजनीति में चंद्रशेखर आजाद नए दलित चेहरा बनकर उभरे हैं. चंद्रशेखर को राजनीति में ना सिर्फ खुद को स्थापति करते देखा जा रहा है, बल्कि वो मजबूती से दलितों के हक में आवाज भी उठाते नजर आ रहे हैं.
इस बार आम चुनाव में जब मायावती की पार्टी बसपा का खाता नहीं खुल सका है, तब चंद्रशेखर ने बिजनौर जिले की नगीना (आरक्षित) सीट से बड़े अंतर से जीत दर्ज की है. चंद्रशेखर की जीत के मायने भी निकाले जा रहे हैं और दलितों के बीच पसंदीदा बनने की चर्चाएं भी सियासी गलियारों में होने लगी हैं. यह जीत दलित वोटर्स में स्पष्ट बदलाव का संकेत भी दे रही है. चंद्रशेखर ने अकेले ही ये लड़ाई लड़ी. जबकि उनके सामने सपा-कांग्रेस गठबंधन और बीजेपी के नेतृत्व वाला एनडीए भी दमखम से ताल ठोक रहा था.
यूपी में इस बार चारों खाने चित हो गई बसपा
बसपा 2024 के चुनाव में अकेले दम पर उतरी थी. लेकिन नतीजे आए तो एक दशक बाद फिर चारों खाने चित हो गई है. 2014 के बाद 2024 में भी बसपा का खाता नहीं खुल सका है. जनाधार भी 10 प्रतिशत से ज्यादा खिसक गया है. एक भी सीट पर दूसरे नंबर पर नहीं आ सकी. ‘सत्ता की मास्टर चाबी’ की संभावनाएं तलाश रहीं मायावती की रणनीति को भी झटका लगा है. दलित आबादी में 55 प्रतिशत हिस्सेदारी रखने वाला जाटव समाज भी हाथ से चला गया है. यह समाज अब तक उनके पीछे खड़ा देखा जाता था. लेकिन इस चुनाव में इसे बड़े वोट बैंक का बसपा से मोहभंग देखा गया और कांग्रेस-सपा गठबंधन के प्रति शॉफ्ट नजरिया रहा.
यह दलितों में नई चेतना का उभार तो नहीं?
यूपी में दलित के साथ अल्पसंख्यक वोट भी बसपा के हाथ से छिटक गए हैं. नतीजों के बाद अब बसपा को भी यह समझ में आ रहा है कि उसका कोर वोट बैंक धीरे-धीरे खिसक रहा है और पार्टी 2014 की स्थिति में आ गई है. कहा जा रहा है कि कोर वोटर्स के दूरी बनाने के कई कारण हैं. एक कारण यह भी है कि बसपा लंबे समय से सत्ता से दूर है और मायावती खुद फील्ड में सक्रिय नहीं दिखती हैं. 2019 में बसपा का वोट शेयर 19.43 प्रतिशत था, लेकिन अब सिर्फ 9.35 प्रतिशत ही रह गया है. इन नतीजों के बाद कहा जा रहा है कि यूपी की राजनीति में दलितों में नई चेतना के उभार के तौर पर देखा जा रहा है.
नगीना में चंद्रशेखर की जीत से निकले सियासी मायने
दरअसल, दलितों के सामने खुद एक विकल्प के रूप में पेश करने वाले चंद्रशेखर ने चुनाव में नगीना (आरक्षित) सीट पर बड़े अंतर से जीत हासिल की है. चंद्रशेखर को 512552 वोट मिले. दूसरे नंबर पर बीजेपी के ओम कुमार को 361079 वोट मिले. तीसरे नंबर पर सपा के मनोज कुमार को 102374 वोट मिले. चौथे नंबर पर बसपा के सुरेंद्र पाल सिंह को सिर्फ 13272 वोट मिले. चंद्रशेखर की 151473 वोटों से जीत हुई. यानी जितने वोटों से चंद्रशेखर की जीत हुई, उससे भी कम वोट बसपा उम्मीदवार हासिल कर पाया.
यूपी में अब कांशीराम की विरासत पर टिकी लड़ाई
चूंकि यूपी में 20 से ज्यादा ऐसी सीटें हैं, जहां 22 से 40 फीसदी तक दलित समुदाय से जुड़े वोटर्स का खासा प्रभाव है. यानी ये वोटर्स ही हार-जीत तय करते हैं. नगीना सीट भी इस सूची में शामिल है. चंद्रशेखर की जीत इसलिए मायने रखती है, क्योंकि 2019 में ये सीट बसपा ने जीती थी. चंद्रशेखर दलितों की राजनीति करते हैं और अपना आदर्श कांशीराम को मानते हैं. उन्होंने 2020 में अपनी पार्टी का गठन किया और उसका नाम भी आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) रखा है. वहीं, मायावती की पूरी राजनीति भी कांशीराम की विरासत पर टिकी हुई है. 1984 में कांशीराम ने ही बसपा की स्थापना की और 2001 में मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था. मायावती जिस दलित वोट बैंक पर अपना अधिकार रखने का दावा करती हैं, चंद्रशेखर भी उसी में सेंध लगाते देखे जा रहे हैं.
कांशीराम ने यूपी की राजनीति में जातीय समीकरण का ऐसा कॉकटेल तैयार किया था, जिसमें दलितों, अति पिछड़ों और मुस्लिम वर्ग को अपने साथ जोड़ा था. कांशीराम के निधन के बाद पार्टी की कमान मायावती के हाथ में आई और उन्होंने कैडर कार्यकर्ताओं को जोड़े रखने के लिए दलित पॉलिटिक्स को नया आकार देने की कोशिश की. यूपी की सत्ता में मायावती ने 4 बार कमान संभाली. उनके नाम देश में अनुसूचित जाति की पहली महिला मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड भी है.
चंद्रशेखर की सक्रियता ने बढ़ाई बसपा की टेंशन
राजनीतिक जानकार कहते हैं कि पिछले कुछ साल से दलित नेता चंद्रशेखर आजाद की सक्रियता ने बसपा प्रमुख मायावती की टेंशन बढ़ाई है. दोनों ही पार्टियों के नेताओं का एक ही खास वोट बैंक पर नजर होने से शह-मात का खेल भी शुरू हो गया. चंद्रशेखर को अक्सर अपने भाषणों में बसपा प्रमुख मायावती को निशाने पर लेते देखा जाता है. चंद्रशेखर आरोप लगाते हैं कि मायावती ने दलितों के लिए ठीक से काम नहीं किया. इसका खामियाजा समाज भुगत रहा है. वे दलित समाज के बच्चों के लिए खुद के स्कूल से लेकर अन्य मदद का दावा भी करते हैं.
बसपा ने युवाओं को साधने के लिए चला था आकाश आनंद का दांव
चूंकि चंद्रशेखर युवा हैं और उसकी काट ढूंढने के लिए बसपा ने सबसे पहले युवा चेहरे के तौर पर आकाश आनंद को प्रोजेक्ट किया. 2019 के चुनाव बाद नेशनल कोऑर्डनेटर बनाया. 2022 के चुनाव बाद मायावती ने आकाश की जिम्मेदारियां और बढ़ाई. 6 महीने पहले उन्हें अपना उत्तराधिकारी तक घोषित कर दिया. आकाश को दलित आबादी वाली सीटों पर प्रचार के लिए भेजा गया. चंद्रशेखर को घेरने के लिए आकाश ने भी मुखरता से बोलना शुरू कर दिया. आकाश और चंद्रशेखर की शैली से लेकर राजनीति करने के तरीके भी दलित समाज में चर्चा के विषय बन गए. दोनों नेताओं के समर्थक भी बढ़ने लगे और युवा की पसंद भी सामने आने लगी. इस बीच, सीतापुर की रैली में आकाश पर समाज को भड़काने का आरोप लगा और उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज हो गई. मायावती ने आकाश की ना सिर्फ रैलियों पर प्रतिबंध लगाया, बल्कि जिम्मेदारियों से भी मुक्त कर दिया. कहा जा रहा है कि इससे बसपा को खासा नुकसान पहुंचा और चंद्रशेखर की छवि नगीना सीट पर और ज्यादा मजबूत हो गई.
यूपी में अपनी सियासी जमीन खोते दिख रही बसपा
2019 में बसपा ने सपा-आरएलडी के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा था और 10 सीटों पर जीत हासिल की थी. इस बार पार्टी ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला लिया. इंडिया ब्लॉक चाहता था कि यूपी में बसपा अलायंस में चुनाव लड़े, लेकिन मायावती अपने फैसले पर अड़ी रहीं. अंदरखाने असंतोष पनपा तो कड़े कदम उठाए. पूरे चुनाव में करीब 14 सीटों पर दो से तीन बार उम्मीदवार भी बदले. बड़े नेताओं को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया. इधर, सिटिंग सांसद भी भांग गए कि पार्टी अकेले चुनाव नहीं जीत पाएगी तो उन्होंने भी साथ छोड़ दिया और दूसरे दलों में चले गए. इनमें सांसद संगीता आजाद, रितेश पांडेय और मलूक नागर जैसे दिग्गजों के नाम शामिल हैं.
इस बार चुनाव में चला नैरेटिव
रही सही कसर तब पूरी हो गई, जब मायावती ने अपने उत्तराधिकारी और नंबर दो के नेता भतीजे आकाश आनंद से सारी जिम्मेदारियां छीन लीं और सार्वजनिक रूप में बयान में कहा कि वो जब परिपक्व नहीं हो जाते हैं तब उन्हें जिम्मेदारियों से मुक्त किया जाता है. आरक्षण और संविधान को लेकर सबसे आगे रहने वाले बसपा नेताओं ने इस मुद्दे पर चुप्पी साधे रखी. दलित वोटबैंक में ये संदेश गया कि वाकई अब मायावती बहुजन आंदोलन से दूर हो गई हैं. इन सारे घटनाक्रमों के बीच माहौल बदलते देर नहीं लगी और यूपी के अंदर यह धारणा बन गई कि बसपा दबाव में आकर काम कर रही है और फैसले ले रही है. वोटर्स को भी यह एहसास हो गया कि पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पा रही है. बसपा के कमजोर होने की स्थिति में चंद्रशेखर दलित युवाओं के लिए एक नए विकल्प के तौर पर देखे जा रहे हैं.
इस बार आम चुनाव में SC-ST की 131 सीटों में से 61 सीटें विपक्षी दलों ने जीती हैं. इनमें 31 सीटें कांग्रेस के खाते में आई हैं. बीजेपी ने 53 सीटों पर जीत दर्ज की है. 2019 में बीजेपी को 82 और कांग्रेस को 10 सीटों पर जीत मिली थी. बसपा को लेकर कहा जा रहा है कि पार्टी सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले में पूरी तरह फेल रही है. जबकि सपा-कांग्रेस ने इस फॉर्मूले का ढंग से इस्तेमाल किया और सफलता भी हासिल की है. मायावती ने इस चुनाव में 28 सभाओं समेत 35 रैलियां की हैं.